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एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए - ज़फ़र इक़बाल

Ek Hi Naqsh Hai  Jitnaa  Bhi Jahaan Rah Jaae Ghazals of Zafar Iqbal


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एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए - ज़फ़र इक़बाल



एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए , 
आग उड़ती फिरे हर-सू कि धुआँ रह जाए. 

कुछ ग़रज़ इस से नहीं रिज़्क़-ए-गदा हो कि न हो ,
कूचा-ओ-राह में आवाज़-ए-सगाँ रह जाए .

ये सफ़र वो है कि इतना भी ग़नीमत है अगर, 
अपने हम-राह यही ख़ाक रवाँ रह जाए.

और कुछ रोज़ रुके सुस्त लहू का मौसम ,
और कुछ देर यही रंग-ए-ख़िज़ाँ रह जाए. 

आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली ,
एक दो दिन उसे कहियो कि यहाँ रह जाए .

कुछ तो रह जाए तग-ओ-ताज़ तलब में बाक़ी, 
वहम अपना रहे या उस का गुमाँ रह जाए .

वो तमन्ना हूँ कि दिल से न गुज़र हो जिस का, 
वो तमाशा हूँ कि नज़रों से निहाँ रह जाए. 

ये भी इक मरहला-ए-सख़्त है ऐ साहब-ए-तर्ज़,
कि बयाँ की जगह अंदाज़-ए-बयाँ रह जाए .

नाम तो फिर भी बड़ी बात है दुनिया में 'ज़फ़र', 
ये भी क्या कम है जो कुछ अपना निशाँ रह जाए .


  • ज़फ़र इक़बाल

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