शहर पर रात का शबाब उतरे - इशरत आफ़रीं
Shahar Par Raat Ka Shabab Utare - Ghazals of Ishrat Afreen
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शहर पर रात का शबाब उतरे - इशरत आफ़रीं |
शहर पर रात का शबाब उतरे
मुझ पे तंहाई का अज़ाब उतरे
आँखें बरसें तो टूट कर बरसें
धूप उतरे तो बे-हिसाब उतरे
हम नई फ़िक्र के पयम्बर हैं
हम पे भी इक नई किताब उतरे
पसलियों के नहीफ़ नेज़ों पर
भूक के ज़र्द आफ़्ताब उतरे
ख़ूब था एहतिमाम-ए-दार-ओ-रसन
हम वहाँ से भी कामयाब उतरे
शहर बहरा है लोग पत्थर हैं
अब के किस तौर इंक़लाब उतरे
'आफ़रीं' शेर वो तो झूटे थे
अब सदाक़त का कोई बाब उतरे
शहर पर रात का शबाब उतरे - इशरत आफ़रीं
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